Saturday, October 16, 2010

इन अंधेरों में

इन अंधेरों में कहाँ गुजर होगी,
देखता हूँ कहाँ जाकर सेहर होगी,
मुदत्त हो गई मुझे घर लोटना है,
मेरा राह देखती माँ घर होगी....जगजीवन सोनू

खुदाया लोट आये

खुदाया लोट आये किसी दिन वो घर अपने,
एहसास बनके जो इक उम्र से साथ रहते हैं....जगजीवन सोनू

उसे पाना है...

उसे पाना है हर हाल में मुझे खोना नहीं,
दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह...जगजीवन सोनू

मेरे हिस्से की...

मेरे हिस्से की उम्र सारी ले लो,
चलते जाना चलने की खुमारी ले लो,
धुप भी होगी तपता सेहरा होगा,
इन दरख्तों से इक शांव उधारी ले लो...जगजीवन सोनू

Sunday, October 3, 2010

मन की पग्दन्दिओन से..

चलो किसी किनारे को मिले,
यु कब तक
लहर की तरह
तड़पते रहोगे, भटकते रहोगे
इस और से दूसरी और
चलो किसी पत्थर से पुशें
कट कर घिस कर
किया सुकून मिला करता है,
पानी के बहाव में
कहा तक घिसटना जायज है
किया लहर भी कोई बात किया करती है।
चलो खुद से बात करें
भवर में हो तो
किसका हाथ पकडे
किया हाथ होते भी
डूब जाना यथार्थ का हिस्सा है
या यु कर लें
मन की पग्दन्दिओन से होते हुए
अपने ही भीतर कही दूर निकल जाएँ
और किनारे पर सहोद जाएँ
लोअत आने की उम्मीद...जगजीवन

बस आखरी साँस..

...और रुक गई सांसे,
ज़िन्दगी ने बदल लिए वस्त्र,
फिर से शुरू हो गिया
एक नया तमाशा...जगजीवन सोनू

गुनगुनाते हुए जिसे...

गुनगुनाते हुए जिसे सुब्ह से शाम हो जाये,
कही ये नाम भी न बदनाम हो जाये,
कुश लिखता हूँ तो उसे शब्द चुभते हैं,
मैं कुश न लिखू तो इल्जाम हो जाये...जगजीवन सोनू

मैंने रखा है इस शहर...

मैंने रखा है इस शहर से बस इतना सा ताल्लुक
यह मुझे जेहर देता हैं मैं पीये जाता हूँ,
इक उम्र से ख़तम हो गई हैं मेरी सांसे,
समझ आती नहीं मैं कैसे जीए जाता हूँ...जगजीवन