Saturday, March 26, 2011

कभी अपनी मुफलिसी पे रोता हूँ...


कभी अपनी मुफलिसी पे रोता हूँ,
कभी बीवी की सादगी पे रोता हूँ।

चिरागों को शूकर गुजर जाती है,
मैं हवा की दरिया दिली पे रोता हूँ।

यूँ भी रोता है भला कोई ऐसे,
बैठ कर जैसे मैं गली में रोता हूँ॥
जगजीवन

पता रहता है...


पता रहता है मुझे के तू कहा रहता है,
क्या करूँ मेरी मुठी में जहाँ रहता है।

निशान रह जाते हैं जैसे पत्तीओं के शाख पे,
तेरा एहसास कुछ यूँ दिल पे बना रहता है।

अपनी दीवारों से रहते हैं सब वाकिफ,
शहर में किसे किसका पता रहता है.....जगजीवन

वो टूट जाएगा, बिखर जाएगा,


वो टूट जाएगा, बिखर जाएगा,
ढून्ढ न पाओगे वो किधर जाएगा।

वो जनता है शहर में सिर्फ मेरा पता,
मेरे घर के सिवा किधर जाएगा।

इक मुद्दत के बाद वो संभला है,
नाम मत लेना वो डर जाएगा।

मेरा चेहरा तेरी आँखों से उतर जाएगा,
चेहरा यह भी इक दिन उतर जाएगा....
जगजीवन

वो टूट जाएगा, बिखर जाएगा,

Wednesday, March 2, 2011

तुम चले आते किसी रोज...


तुम चले आते किसी रोज तो बुरा क्या होता,
सोचते तुम भी के मिलने में भला क्या होता।

तोहमते मुझ पे लगाकर य़ू मुह फेर लिया,
तुम तो अपने थे फिर तुम्क्से गिला क्या होता।

अब चले जाओ के जला बैठोगे हाथ अपने,
कुरेदते राख भी तो इसमें भला क्या होता।

य़ू तो तुमने भी पूछा नहीं हाले दिल कभी,
पूछ भी लेते सोचता हूँ के मिला क्या होता।

आह भी भरता हु तो माथे पे शिकन आती है,
अगर मैं कुछ कहता तो इसका सिला क्या होता..
जगजीवन


Tuesday, March 1, 2011

आखरी चेहरा


(१)

तुम सच को चीख कर भी कहोगे

तो भी झूठ के पैर नहीं उग आएंगे

अपना चेहरा संभालकर रखना

शेहर में बहुत भीड़ है

कही तुम अपना वजूद न खो दो।

(2)

एक दो तीन चार और दस

सबके सब चेहरे गिन लो अशी तरह

ज़िन्दगी का सफर बहुत लम्बा है

तुम्हरे काम आएंगे

(३)

शेहर में भीड़ है सिर्फ पैरो की

पैरो का तुमसे कोई लेना देना नहीं

ये बात तुम कई बार कह चुके हो

चलो मंजिल पर बैसखिया राह देख रही हैं।

(४)

तुम्हे दर है

की कोई तुम्हारइ पीठ पर शूरा न घोप जाये

दोष तुम्हारा भी नहीं

पहले शहर होता था

अब भीड़ हो गई है

इसी भीड़ के किसी शोअर में

आखरी चेहरे की कथा लिखी जा रही है...

जगजीवन