Tuesday, December 28, 2010

यु तो खुल के मिला नहीं कोई


यु तो खुल के मिला नहीं कोई,
हमें भी किसी से गिला नहीं कोई,
इक उम्र से मैं इंतजार में हूँ,
मगर घर से अभी चला नहीं कोई...जगजीवन

Saturday, December 4, 2010

कोई ,मिले तो इक बार

कोई ,मिले तो इक baar

मुद्दत हुई कभी कोई...

मुद्दत हुई कभी कोई शिकवा नहीं किया,
चलो किसी दिन खुद से मिला जाये...जगजीवन

इक उम्र गुजर गई...

इक उम्र गुजर गई उधार सांसो पर जीते हुए,
खुदा ने ज़िन्दगी तो दी मगर हमें जीना नै आया...जगजीवन

खुशमिजाज है वो...

खुशमिजाज है वो शहर में मोहबत ढून्न्धता है,
ठीक नहीं उस शक्श को आदमी कहना....जगजीवन सोनू

Saturday, October 16, 2010

इन अंधेरों में

इन अंधेरों में कहाँ गुजर होगी,
देखता हूँ कहाँ जाकर सेहर होगी,
मुदत्त हो गई मुझे घर लोटना है,
मेरा राह देखती माँ घर होगी....जगजीवन सोनू

खुदाया लोट आये

खुदाया लोट आये किसी दिन वो घर अपने,
एहसास बनके जो इक उम्र से साथ रहते हैं....जगजीवन सोनू

उसे पाना है...

उसे पाना है हर हाल में मुझे खोना नहीं,
दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह...जगजीवन सोनू

मेरे हिस्से की...

मेरे हिस्से की उम्र सारी ले लो,
चलते जाना चलने की खुमारी ले लो,
धुप भी होगी तपता सेहरा होगा,
इन दरख्तों से इक शांव उधारी ले लो...जगजीवन सोनू

Sunday, October 3, 2010

मन की पग्दन्दिओन से..

चलो किसी किनारे को मिले,
यु कब तक
लहर की तरह
तड़पते रहोगे, भटकते रहोगे
इस और से दूसरी और
चलो किसी पत्थर से पुशें
कट कर घिस कर
किया सुकून मिला करता है,
पानी के बहाव में
कहा तक घिसटना जायज है
किया लहर भी कोई बात किया करती है।
चलो खुद से बात करें
भवर में हो तो
किसका हाथ पकडे
किया हाथ होते भी
डूब जाना यथार्थ का हिस्सा है
या यु कर लें
मन की पग्दन्दिओन से होते हुए
अपने ही भीतर कही दूर निकल जाएँ
और किनारे पर सहोद जाएँ
लोअत आने की उम्मीद...जगजीवन

बस आखरी साँस..

...और रुक गई सांसे,
ज़िन्दगी ने बदल लिए वस्त्र,
फिर से शुरू हो गिया
एक नया तमाशा...जगजीवन सोनू

गुनगुनाते हुए जिसे...

गुनगुनाते हुए जिसे सुब्ह से शाम हो जाये,
कही ये नाम भी न बदनाम हो जाये,
कुश लिखता हूँ तो उसे शब्द चुभते हैं,
मैं कुश न लिखू तो इल्जाम हो जाये...जगजीवन सोनू

मैंने रखा है इस शहर...

मैंने रखा है इस शहर से बस इतना सा ताल्लुक
यह मुझे जेहर देता हैं मैं पीये जाता हूँ,
इक उम्र से ख़तम हो गई हैं मेरी सांसे,
समझ आती नहीं मैं कैसे जीए जाता हूँ...जगजीवन

Saturday, September 18, 2010

मुशिकल है के भीड़ में...

मुशिकल है के भीड़ में बुलाएगा कोई मुझे,
लोग खुद से ज्यादा नहीं जानते इस शहर में...जगजीवन सोनू

अपने अरमान दिल में शुपाकर रखिये

अपने अरमान दिल में शुपाकर रखिये,
भंवर में हो तो हाथ उठाकर रखिये।

बेगाने शहर में कहा जाकर शत ढून्दोगे,
इक घरोंदा कागज़ पर बनाकर रखिये।

आंधियां रोक नहीं सकते अगर हाथो से,
इन्ही हाथो से चिराग जलाकर रखिये।

इतना आसान नहीं सफ़र बर्फ पर करना,
आग पैरो में पल-पल लगाकर रखिये।
जगजीवन सोनू

सवाल करता है...

सवाल करता है, मगर वो खुद जवाब जैसा है,
शब्द मैं ढूँढता हूँ, मगर वो किताब जैसा है।

किसी फूल पर बैठी तितली की हँसी है,
बाग़ में महकी खुशबु बेहिसाब जैसा है।

ओस के उस पार गुजरती सूरज की किरण,
खुली आँख से देखा कोई खवाब जैसा है......
जगजीवन सोनू

Friday, June 11, 2010

की पता लगे...


की पता लगे पिया की चेहरिया दे आर पार,
जद नजर जांदी नहीं है शेशिया दे आर पार,
खुदा मेनू बी रोशन इस तरह कर दे किते,
रौशनी हुन्दी जिवें हैं जुग्नुआन दे आर पार..जगजीवन सोनू

Sunday, June 6, 2010

भला कहते या बुरा कहते


भला कहते या बुरा कहते,
उस भीड़ में किसे खुदा कहते।
कभी तो करो कोई बात मेरी,
उम्र गुजर गई मुझे बेवफा कहते.......जगजीवन सोनू

Sunday, April 11, 2010

आइना होने की सजा...


आइना होने की यह सजा पाई है साहेब,
आज बिखरे हैं तो उनकी ही गली में....जगजीवन सोनू

Saturday, April 10, 2010

खुले दरवाजे...


खुले दरवाजे खुली सब खिडकिया रखना,
मोम के दिल में न बिजलियाँ रखना।

किसकी पर्खोगे इस शहर में मसुमिअत,
तोड़ दो पिंजरे, पालने में तितलियाँ रखना।

गभरा के धुन्दते हो किसे इस रह गुजर में,
रोक लेना आंसूं शुपा के बदलियाँ रखना।

जगजीवन सोनू

कम्पते होंठों पर...




कांपते होंठो पर उंगलिया रख देना,
मेरी किताबों में तितलियाँ रख देना।

मैं अगर रोक दूँ बेवजह सफ़र अपना,
या खुदा मेरे कदमो में बैसाखिया रख देना।

मैं इसी वेहम से लौट आऊंगा इक दिन,
तू किसी मोड़ पर सिसकियाँ रख देना।

जगजीवन सोनू

गीत गुगुनाकर देखो...


मैं तेरे पैरों में बांध दू लफ्जों की पाजेब,
तुम कोई गीत मेरे लिए गुनंगुनाकर देखो...

जलजला रखते..

दो कदम तो काफिला रखते,
साथ चलने का हौसला रखते,
सागर होने से पहले साहेब,
दिल के भीतर कोई जलजला रखते॥
जगजीवन सोनू

कांच का टुकड़ा

वेहम कोई भी हो पाले रखिये।
ज़िन्दगी आइना है, संभाले रखिये।

किसी को...


किसी को dhundane निकला हूँ शहर में,
अपना ही पता पूशने निकला हूँ शहर में।

पाल लिए वेहम अन्देहरे में रौशनी के,
अब देख लो जलने निकला हूँ शहर में,

सुना है वो मसल देते हैं पैरों से,
फूल बनकर खिलने निकला हूँ शहर में।


जगजीवन सोनू

Monday, January 11, 2010

मैं तिड़के शीशेयाँ नु कद तक सम्भालंगा

तू जद वी देख्दा हैं
तिडके होए शीशे ही
वेखदा हैं
पता नहीं किओं
तेनु मेरे
हथां दीआं
उंगलां विचों
लहू सिमदा
नजर नहीं औंदा....जगजीवन सोनू

Wednesday, January 6, 2010